मंगलवार, 22 जुलाई 2014

उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना

                            || श्री जानकीवल्लभो विजयते ||

गो-स्वामी तुलसी दास जी द्वारा रचित श्री राम चरित मानस की एक चौपाई में भगवान शिव माँ पार्वती से कहते हैं उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन जगत सब सपना ” अर्थात केवल हरि का निरंतर स्मरण ही एक मात्र सत्य है बाकी इस जगत में सभी कुछ केवल स्वप्न के समान है |
जैसे अर्ध निद्रा की अवस्था में जब आप कोई स्वप्न देखते हैं तो, स्वप्न की स्थिति के अनुसार आप सुख या दुःख की अनुभूति करते हैं, किन्तु जैसे ही आप जाग्रत अवस्था में आते है तो वह सभी सुख और दुःख की अनुभूति समाप्त हो जाती है |
ठीक इसी प्रकार जब आप भगवान के नाम जाप के महत्व को समझ जाते हैं तो आप इस स्वप्न के संसार की वास्तविकता को समझ जाते हैं और आपका हृदय एक ऐसे आनंद की अनुभूति की और अग्रसर होता है जिसका कभी अंत नहीं हो सकता |
ऐसा नहीं है की इस जगत के क्षणिक होने के आभास, हमें अपने जीवन में नहीं होता है लेकिन हम वास्तविकता की और अपना ध्यान केन्द्रित ही नहीं करते हैं, हिन्दी के पृसिद्ध कवि जय शंकर प्रसाद ने कहा है “ श्मशान संसार का सबसे बड़ा मुक शिक्षक है |
श्मशान ही वह स्थल है जो हमें जीवन के सत्य से परिचित करवाता है किन्तु हम पुनः इसको नकार कर इस स्वप्नवत संसार में रम जाते हैं | जीवन में सबसे बड़ा भय मृत्यु का होता है यदि आप इस भय से मुक्त होना चाहते हैं तो अपने आप को पहचानने की आवश्यकता है |
जिस दिन यह विश्वास आपके हृदय में अपनी पैठ बना लेगा की “ईश्वर अंश जीव अविनाशी” और इस अंश का वास्तविक लक्ष्य उस अंश से मिलना है तो आपके हृदय में बैठा मृत्यु का भय आपसे कोसो दूर होगा, जिस दिन आप प्रभु के उस मनोहारी रूप सौंदर्य में खो जाएंगे और निरंतर उसका स्मरण करते रहेंगे तो आप उस आनंद की ओर अग्रसर होगे जिसको सचिदानंद सत चित आनंद कहा गया है|
मेरे राघवेंद्र सरकार तो बिना कारण ही अपनी करुणा बरसाते ऐसे में यदि उनकी कृपा मिल जाए तो जीवन में कुछ भी अप्राप्त नहीं रह जाएगा |
गो-स्वामी तुलसी दास जी ने श्री रामचरित्र मानस में लिखा है की जो प्रभु राम का नाम दुर्भावना के साथ भी लेता है उसका भी प्रभु कल्याण करते हैं, अजामिल ने जीवन भर दुष्कर्म किए किन्तु यमदूतों को देख कर भय वश अपने पुत्र नारायण को पुकारने लगा तो केवल इतने पर ही प्रभु ने उसको अपना लोक प्रदान किया |
ऐसे करुणामय प्रभु का एक क्षण भी विस्मरण क्या उचित है ? सोचिए समय तीव्र गति के साथ भागा जा रहा है; ऐसा न हो की जब आपकी चेतना जाग्रत हो तब तक समय समाप्त हो चुका हो |
इसलिए “ उठत बैठत सोवत जागत जपो निरंतर नाम | हमारे निर्बल के बल राम” ||    

जय सियाराम       

शनिवार, 19 जुलाई 2014

|| सनातन धर्म के संस्कार ||


                       
    
                                || श्री जानकीवल्लभो विजयते ||

सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का आविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है।

प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। 

महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।

नामकरण के बाद चूडाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है।

विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।

गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है। दोष मार्जन के बाद मनुष्य के सुप्त गुणों की अभिवृद्धि के लिये ये संस्कार किये जाते हैं।

हमारे मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिये अपने अथक प्रयासों और शोधों के बल पर ये संस्कार स्थापित किये हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण भारतीय संस्कृति अद्वितीय है। हालांकि हाल के कुछ वर्षो में आपाधापी की जिंदगी और अतिव्यस्तता के कारण सनातन धर्मावलम्बी अब इन मूल्यों को भुलाने लगे हैं और इसके परिणाम भी चारित्रिक गिरावट, संवेदनहीनता, असामाजिकता और गुरुजनों की अवज्ञा या अनुशासनहीनता के रूप में हमारे सामने आने लगे हैं।

समय के अनुसार बदलाव जरूरी है लेकिन हमारे मनीषियों द्वारा स्थापित मूलभूत सिद्धांतों को नकारना कभी श्रेयस्कर नहीं होगा |




सोमवार, 7 जुलाई 2014

राम रक्षा स्त्रोत से आपतियों का सहज निवारण |


                                            || श्री जानकीवल्लभो विजयते || 

यदि आपके घर में तनाव का वातावरण हो एवं आर्थिक समस्याओं ने कर रखा हो परेशान तो नियमित रूप से अपने घर में राम रक्षा स्त्रोत का पाठ किया करें, भगवान श्री राम की शक्तियों में आपकी जितनी श्रद्धा होगी वैसा ही लाभ आप प्राप्त करेंगे | कुछ ही दिन में आपको आश्चर्य जनक परिणाम प्राप्त होने लगेंगे क्योंकि :-

चरित रघुनाथस्य  शतकोटिप्रविस्तरम | एकैकमक्षर्म पुंसा महापातक नाशनम ||

श्री रघुनाथ जी का चरित्र सौ करोड़ गुना विस्तार वाला है और उसका एक एक अक्षर भी मनुष्य के महान पापों को नष्ट करने वाला है |

आपदामपहरतार्म दातारम सर्वसम्पदाम | लोकाभीरामम श्रीरामम भूयो भूयो नमामयहम ||

भगवान श्री राम सभी प्रकार की आपत्तियों को हरने वाले तथा सब प्रकार की संपत्ति को प्रदान करने वाले हैं इस लिए मैं भगवान राम को बारंबार प्रणाम करता हूँ |

राम रामेती रामेती रमे रामे मनोरमे | सहस्त्रनाम ततुल्यम राम नाम वरानने ||


श्री महादेव जी माँ पार्वती से कहते है:-  हे सुमुखी यानी सुंदर मुख वाली ! राम नाम विष्णु सहस्त्र नाम के तुल्य है | मैं सर्वदा “ राम राम राम “ इस प्रकार मनोरम राम नाम में ही रमण करता हूँ      

                                         प्रेम से कहिए "जय सियाराम"     

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

भगवान को प्रसन्न करने का सबसे सरल उपाय |

भगवान को प्रसन्न करने का सबसे सरल उपाय है भगवान का भजन और उनकी लीलाओं का निरंतर स्मरण, भगवान शंकर माँ पार्वती से कहते हैं :-

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना | ताहि भजन तजि भाव न आना ||

भगवान शिव कहते हैं, हे पार्वती ! जगत पिता भगवान के स्वभाव को जो जान जाएगा, उसको भजन के सिवा और कुछ अच्छा नहीं लगेगा | यह देव दुर्लभ शरीर भजन करने के लिए ही मिला है; गो-स्वामी तुलसी दास जी ने लिखा है:-

देह धरे कर यह फलु भाई | भाजिअ राम सब काम बिहाई ||

इस मानव शरीर को धारण करने का यही उद्देश्य है की हम निरंतर प्रभु श्री राम का स्मरण करते रहे, भगवान की प्राप्ति भजन करने से जितनी सुगमता से प्राप्त हो सकती है ऐसा कोई दूसरा सरल साधन उपलब्ध नहीं है | भगवान श्री कृष्ण ने भगवत गीता में कहा है :-

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश: |
तस्याह्ं सुलभ: पार्थ नित्य युक्तस्य योगिन: || 
 
अर्थात हे अर्जुन ! जो पुरुष मेरे में अनन्य चित से स्थित हुआ सदा ही निरंतर मेरे को स्मरण करता है, ऐसे व्यक्ति यानी योगी के लिए मैं सुलभ हूँ | सुलभ शब्द भगवत गीता के सात सौ श्लोकों में केवल एक बार आया है | सांसारिक संबंध हमसे बहुत सी आपेछाये  रखते हैं किन्तु भगवान और संत हमसे थोड़ा सा लेते हैं और बदले में बहुत सा देते हैं | प्रेम से कहिए जय सिया राम

बुधवार, 25 जून 2014

क्या बिना भगवान के हमारा अस्तित्व संभव है ?


मानव जीवन एवं इस सृष्टि को सक्रिय एवं सुचारु रूप से संचालन के लिए जिन वस्तुओं की हमें नितांत आवश्यकता है वो है भूमि अर्थात जमीन, गगन अर्थात आकाश, वायु अर्थात हवा या आक्सीजन, नीर अर्थात जल या पानी क्या इन वस्तुओं का उत्पादन किसी कारखाने अथवा फेक्ट्री मे होता है आपका भी उत्तर होगा नहीं; ये सभी वस्तुएँ हमे जिससे प्राप्त होती हैं उनका नाम है भगवान, कैसे ?

  से भूमि
ग से गगन
व से वायु
न से नीर


क्या बिना भगवान के हमारा अस्तित्व संभव है ? यदि उत्तर ना होतो प्रेम से कहिए जय सियाराम

मानसिक तनाव से छुटकारा पाने का सरल उपाय |


हम सभी की यह कामना होती है की हम तनाव मुक्त एवं खुशहाल जीवन व्यतीत करें किन्तु आज के भागदौड़ भरे जीवन और अनियमित जीवन शैली में यह तनाव रूपी राक्षस कब हमें और हमारे परिवार को अपनी गिरफ्त में ले लेता है इसका पता ही नहीं चलता है | यदि आप भी किसी ऐसी समस्या से परेशान है तो आगे बताए गए उपाय को करें लाभ मिलेगा |

प्रतिदिन घर के सभी सदस्यों को रात्रि में सोते समय अपना सिरहाना पूर्व या दक्षिण दिशा की ओर रखना चाहिये ।

आप जिस कमरे में सोते हैं वहाँ पर अपने तकिये के नीचे एक छोटे से चाकू को रखें इससे नींद अच्छी आयेगी एवं डरावने स्वप्न नहीं दिखायी देंगे ।

सोने से पहले कपूर का दिया जलाएं एवं एक लोटे में जल भरकर रात में सोते समय उसे अपने सिरहाने रख कर सोएं एवं प्रातः काल उसे किसी कांटेदार वृक्ष अथवा गमले में डालें ।

शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार से प्रतिदिन हनुमान जी की पूजा और उनका स्मरण करें एवं नियमित रूप से बजरंग बाण का पाठ करें यह पाठ प्रत्येक मंगलवार को नियमित रूप से करें ।


शनिवार के दिन श्री शनि देव को सरसों का तेल चढ़ाएं एवं अपनी पहनी एक जोड़ी चप्पल किसी गरीब व्यक्ति को दान करें, पीपल वृक्ष की जड़ में एक लोटा जल चढ़ाएं और शनि देव के बीज मन्त्रों की एक माला का जाप करें ।

रविवार, 22 जून 2014

क्या करें जब पिता और पुत्र के सम्बन्धों मे हो कड़वाहट ?



यदि आपके घर में आपके पति एवं पुत्र के मध्य वैचारिक समानता नहीं है ...और जिसको लेकर आप परेशान हैं तो आगे बताये गए उपाय को पूरे श्रद्धा और विश्वास से करें आपकी समस्या का समाधान होगा |

प्रात: स्नानादि के पश्चात नित्य श्री गणेश स्त्रोत का पाठ किया करे | 
बुधवार या गणेश चतुर्थी से यह पाठ शुरू करे, साथ ही पीपल के वृक्ष को शनिवार के दिन दुग्ध मिश्रित जल एवं काला तिल अर्पित करे | 
तथा उसी वृक्ष के निचे घी का दीपक एवं धुप जलाए | 
पिता पुत्र के बीच बिगड़े संबंध को मधुर बनाने के लिए मन ही मन प्रार्थना करे एवं पीपल के वृक्ष को आदर से स्पर्श करके प्रणाम करे |
पूर्ण विश्वाश के साथ यह प्रयोग प्रत्येक शनिवार लगातार करते रहे ....बहुत ही चमत्कारिक उपाय है अवश्य करे लाभ होगा |

शनिवार, 21 जून 2014

शिक्षा का जीवन मे महत्व |


शिक्षा का हमारे जीवन में बहुत ही महत्व है स्वामी विवेकानन्द के कथनानुसार शिक्षा मनुष्य के भीतर छुपे सुप्त गुणों को जाग्रत कर उसे समाज एवं देश के लिए उपयोगी बनाती है |

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञान न शीलं न गुणो न धर्म: | 
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मॄगाश्चरन्ति ||


जिसके पास न विद्या हो, न तप हो, न दान हो, न शील, न गुण न धर्म हो, ऐसा व्यक्ति इस लोक में मनुष्य के रूप में पशु के समान होता है |

सफलता प्राप्त करने के लिए परिश्रम एक मात्र विकल्प है |


उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्यणि न मनोरथै: |
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मॄगा: || 


केवल सोचने मात्र से आप अपने किसी कार्य को पूर्ण नहीं कर सकते हैं कार्य को पूर्ण करने के लिए कठोर परिश्रम की आवश्यकता होती है जैसे सोते हुवे सिंह के मुख में हिरण स्वयं नहीं जाता है बल्कि सिंह को उसका आखेट करना पड़ता है ।

गुरुवार, 19 जून 2014

श्री भगवान के धाम मे कैसे जाएँ ?

श्रीमद भगवत गीता के अध्याय आठ में एक श्लोक है जिस में व्यक्ति भगवान के धाम में कैसे जा सकता है उसका वर्णन है :-

अन्तकाले च मामेव स्म्रन्मुक्तवा कलेवरम |
यः प्रयाति स मद्भाभावं याति नास्त्यत्र संशयः ||

"अर्थात अंतकाल में जो कोई मेरा स्मरण करते हुवे शरीर का त्याग करता है वह तुरंत मेरे स्वभाव ( अर्थात मेरे धाम ) को प्राप्त होता है, इसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं है |"

लेकिन अन्त काल में भगवान का स्मरण होगा कैसे ? इसके लिए अपने दैनिक कर्मों का निर्वहन करते हुवे भी हमें निरंतर भगवान का स्मरण करना होगा | अब प्रश्न उठता है की एक साथ दो कार्य कैसे संभव है ? 

आइए एक छोटा सा उदाहरण लेते है | यदि कोई विवाहित स्त्री या पुरुष दोनों में से कोई भी यदि किसी दूसरे के प्रति आकर्षित हो जाए तो ऐसी आसक्ति बहुत ही प्रबल होती है | ऐसी आसक्ति से ग्रसित व्यक्ति सदैव अपने प्रेमी का चिंतन करता रहता है | स्त्री अपने घरेलू कार्य के दौरान अपने कार्य को पूरी सावधानी से करती है ताकि उसके पति को उसकी इस आसक्ति का पता न चल सके | 

यही प्रवृति हमें अपने दैनिक व्यवहार में भी अपनानी होगी तभी कल्याण संभव है | प्रेम से कहिए जय सियाराम ! 

प्रभु का निरंतर स्मरण मृत्यु के भय से मुक्ति |

इस कलिकाल में मुक्ति और प्रभु की भक्ति पाना बहुत ही सरल है लेकिन उसके


लिए हमें अपने दैनिक कार्यों को करते हुवे भी निरंतर प्रभु को स्मरण करते रहने

की कला सीखनी होगी; धार्मिक ग्रन्थों में कहा गया है की मृत्यु के समय मे 

हृदय में जो विचार होते हैं उसी के अनुसार उस व्यक्ति को गति प्राप्त होती 

है...इसी लिए पहले लोग अपनी संतान का नाम ऐसा रखते थे जो मृत्यु की 

कष्टकर स्थिति में भी स्मरण रहे....गो-स्वामी तुलसी दास जी ने कहा है 

“जियत मरत दूसह दुःख होई |” 

अर्थात जन्म और मृत्यु दोनों ही कष्टकारी है लेकिन मेरा मानना है की निरंतर प्रभु

का स्मरण आपको इस भय से मुक्त रखेगा, इसलिए ये ना सोचे की अभी तो 

बहुत समय है, बल्कि अभी से प्रयास करना आरंभ कर दें, लेकिन कैसे ?

“ सोवत जागत उठत बैठत जपो निरंतर नाम, हमारे निर्बल के बल राम” 

गो-स्वामी तुलसी दास जी ने लिखा है 

“जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं | अंत राम कही आवत नाही |


जासु नाम बल संकर काशी | देत सबहि सम गति अबिनासी |" 

   


  

श्री राम चरित मानस मे कपटी मित्र के लक्षण |

श्री राम चरित मानस मे जहां एक ओर सच्ची मित्रता कैसी हो इस का वर्णन है वहीं दूसरी ओर कैसे मित्रो को त्याग देना चाहिये इस का भी वर्णन है |

गो-स्वामी तुलसी दास जी कृत श्री राम चरित मानस की अग्र लिखित चौपाई मे कुटिल मित्र का वर्णन है 

आगें कह मृदु बचन बनाई | पाछें अनहित मन कुटिलाई | |
जाकर चित अहि गति सम भाई | अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई | | 

अर्थात जो सामने तो बना-बना कर कोमल वचन कहता है और पीठ पीछे बुराई करता है और मन में कुटिलता रखता है, जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है |

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी | कपटी मित्र सूल सम चारी | |

मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री, और कपटी मित्र ये चारों शूल के समान कष्ट देने वाले हैं | अतः इनको त्यागने में ही भलाई है |  


गुरु संग दगा मित्र संग चोरी | हो नर अंधा या हो कोढ़ी | |  

गुरु के साथ धोखा और मित्र के साथ चोरी (छल कपट) करने वाला व्यक्ति अगले जन्म 

मे या तो दृष्टी हीन होता है अथवा कुष्ठ रोग से ग्राषित होता है |

बुधवार, 18 जून 2014

जीवन मे मित्रता का महत्व श्री राम चरित मानस से |


जीवन में मित्रता का क्या महत्व है यदि इसका अवलोकन करना होतो श्री राम चरित मानस में श्री राम और सुग्रीव की मित्रता के वर्णन का द्रष्टांत देखना चाहिए |

जे न मित्र दुःख होहीं दुखारी | तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ||
निज दुःख गिरि सम रज करि जाना | मित्रक दुःख रज मेरु समाना ||

जो लोग मित्र के दुःख से दुःखी नहीं होते, उन्हे देखने से ही बड़ा पाप लगता है | अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान एवं मित्र के धूल समान दुःख पर्वत के समान समझना चाहिए |

कुपथ निवारि सुपंथ चलावा | गुन प्रगटे अवगुनहिं दुरावा ||

मित्र का धर्म है की वह मित्र को बुरे मार्ग से रोक कर अच्छे मार्ग पर चलाये एवं उसके गुण प्रगट करें एवं अवगुण को छुपाये |

देत लेत मन संक न धरई | बल अनुमान सदा हित करई |
बिपति काल कर सतगुन नेहा | श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ||


देने-लेने में मन में शंका न रखे | अपने बल के अनुसार सदा हित करता रहे और विपत्ति के समय तो सदा सौ गुना स्नेह करें | वेद भी श्रेष्ठ मित्र के लक्षण यही बताते हैं |     

श्री राम चरित मानस एवं श्रीमद भगवत गीता मे जाति प्रथा का खंडन |

श्री राम चरित मानस में शबरी की कथा से हम सभी परिचित है मतंग ऋषि के वचन में विश्वास रखते हुवे शबरी निरंतर रघुनाथ जी की भक्ति करती रही और अंततः वह समय भी आया जब करुणा के सागर रघुनाथ जी शबरी के पास गए, जब शबरी ने प्रभु के उस मनोहर रूप को देखा तो उसका प्रेम और भी बढ़ गया गो स्वामी तुलसी दास जी ने इसका वर्णन बहुत ही सुंदर चौपाई में किया है :-
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी | अधम जाती मैं जड्मती भारी ||
शबरी हाथ जोड़कर प्रभु से बोली की मैं निम्न जाति की मूढ़ स्त्री हूँ किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ |
आगे गो स्वामी तुलसी दास जी ने लिखा है :-
कह रघुपति सुन भामिनी बाता | मानऊँ एक भगति कर नाता |

रघुनाथ जी ने शबरी से कहा मेरा तो केवल एक भक्ति का संबंध है जिस में जाति का कोई महत्व नहीं है अर्थात  “हरी को भजे सो हरी का होई” श्रीमद भागवत गीता में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने कहा है चतुवर्णमयासृष्टम् गुणकर्म विभागश: अर्थात चारों वर्णों का वर्गिकरण मेरे द्वारा गुण के आधार पर किया गया है न की जाति के आधार पर फिर भी हम इन व्यर्थ की बातों में उलझे रहते है की मैं बड़ा हूँ वो छोटा है उसकी जाति उच्च है और वह निम्न जाति का है और इस का लाभ समाज के उन चंद ठेकेदारों को मिलता है जो हमारी इस निम्न सोच का लाभ उठा कर अपना हित साधते हैं | आवश्यकता है इन बातों से ऊपर उठ कर अपने देश को पुनः विश्व गुरु बनाने की और अग्रसर करने की |    

इस कलिकाल मे भगवान के नाम जाप का महत्व |

गो स्वामी तुलसी दास जी ने लिखा है 

“कलियुग केवल नाम अधारा सुमिर सुमिर नर ऊतरहिं पारा” 

अर्थात कलियुग में केवल नाप जाप से ही हम इस भव बंधन को काट सकते है | लेकिन अब प्रश्न उठता है की किस नाम का जाप करें, 

“ बंदउ नाम राम रघुबर को | हेतु क्रिसानु भानु हिमकर को || 

अर्थात श्री रघुनाथ जी के नाम “राम की वंदना करें, जो अग्नि, सूर्य, और चंद्रमा का हेतु है, अर्थात “र” “आ” “म” रूप से बीज है |
वह “राम” नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिव रूप है |

महा मंत्र जोई जपत महेसू | कासी मुकुति हेतु उपदेसू ||

राम नाम वही महामंत्र है जिसको स्वयं भगवान शिव भी जपते है और जिनका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है | काशी में मृत्यु के समय भगवान शिव इसी तारक मंत्र “राम” का उपदेश देते हैं |

जान आदि कबि नाम प्रतापू | भयउ शुद्ध कर उल्टा जापू ||

आदि कवि बाल्मीकी जी ने इसी राम नाम को उल्टा जप कर भी पवित्र हो गए मुक्त हो गए | माँ पार्वती भी भगवान शिव के साथ इसी राम” नाम का जाप करती हैं और इस नाम के प्रति उनकी प्रीति को देख कर भगवान शिव ने उनको अपनी अर्द्धांग्नी अर्थात अपने आधे अंग में धारण कर लिया |

नाम प्रभाउ जान सिव नीको | कालकूट फलु दीन्ह अमी को ||

“राम नाम के प्रभाव को भगवान शिव से अधिक कोई नहीं जनता है क्योंकि इसी नाम के प्रभाव से ही भगवान शिव ने जो विष पान किया था वह भी उनके लिए अमृत के समान हो गया था |  

इसी लिए सदैव “ सीय राममय सब जग जानी” इस सारे जगत को सीता राम मय जानकार सदा उनका स्मरण करते हुवे अपने कर्म को करते रहे |