|| श्री जानकीवल्लभो विजयते ||
सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों
पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के
लिये संस्कारों का आविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन
संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन
संस्कारों का महती योगदान है।
प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार
से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय
बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार
समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में
चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है।
महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस
संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे
धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें
पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान
के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म,
नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये
किये जाते हैं।
नामकरण के बाद चूडाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार
होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण
संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा संस्कार
है,
जो जन्म-जन्मान्तर का होता है।
विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम
में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के
क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन,
जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण,
अन्नप्राशन, चूडाकर्म, विद्यारंभ,
कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ,
केशान्त, समावर्तन, विवाह
तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।
गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को
गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा
इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष
मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है
कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई
विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को
गुणाधान संस्कार कहा जाता है। दोष मार्जन के बाद मनुष्य के सुप्त गुणों की
अभिवृद्धि के लिये ये संस्कार किये जाते हैं।
हमारे मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक
बनाने के लिये अपने अथक प्रयासों और शोधों के बल पर ये संस्कार स्थापित किये हैं।
इन्हीं संस्कारों के कारण भारतीय संस्कृति अद्वितीय है। हालांकि हाल के कुछ वर्षो
में आपाधापी की जिंदगी और अतिव्यस्तता के कारण सनातन धर्मावलम्बी अब इन मूल्यों को
भुलाने लगे हैं और इसके परिणाम भी चारित्रिक गिरावट, संवेदनहीनता,
असामाजिकता और गुरुजनों की अवज्ञा या अनुशासनहीनता के रूप में हमारे
सामने आने लगे हैं।
समय के अनुसार बदलाव जरूरी है लेकिन हमारे
मनीषियों द्वारा स्थापित मूलभूत सिद्धांतों को नकारना कभी श्रेयस्कर नहीं होगा |
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